Sunday, July 5, 2009

ज़मीन पर

भारत चिकित्सा विज्ञान की असीम बुलंदियों को छूने वाली मंज़िल तक पहुँच गया। फिर उसने नीचे झाँककर देखा। अद्भुत नजारा था। मंज़िल के इर्द-गिर्द ज़मीन पर बिखरे लोग कीड़े-मकोड़ों से भी छोटे नज़र आ रहे थे। लेकिन ये लोग थे कौन? उसने नीचे उतरकर देखा। वही लोग, जो अमूमन हर बड़े अस्पताल के परिसर में इधर-उधर पड़े रहते हैं। कुछ बेड खाली होने का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ रजिस्ट्रेशन फीस तक चुकाने की हालत में नहीं थे, लिहाज़ा उन्हें भर्ती नहीं किया जा रहा था। कुछ पैसा खत्म हो जाने की वजह से डिस्चार्ज कर दिए गए थे।

उन्मूलन

निर्माणाधीन “विकास भवन” की पहली मंज़िल के उद्‌घाटन के अवसर पर एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजिन किया गया। शहर की प्रमुख हस्तियों के अलावा देश के जाने माने विद्वान, प्रशासक, राजनेता, पत्रकार, साहित्यकार आमंत्रित थे। विषय था- गरीबी उन्मूलन : कल, आज और कल।
सेमिनार खत्म हो गया। सब लोग जा चुके थे। लेकिन हॉल अभी सूना नहीं हुआ था। वहां शोरगुल जारी था। मैंने अंदर जाकर देखा। बिल्डिग के निर्माण कार्य में लगे मजदूरों के बच्चे चीजें बटोरने में लगे थे। छीना-झपटी भी हो रही थी। कोई बिसलेरी की दो-तीन खाली बोतलें पाकर ही खुश था, तो कोई प्लेटों के ढेर में रसगुल्ले तलाश रहा था। कोई नीचे से पिज्जा उठाकर उसमें लगी धूल-मिट्टी साफ कर रहा था, तो कोई फ्रूटी के खाली डिब्बे में स्ट्रा डालकर सुट्टा मार रहा था। जिस बच्चे के हाथ ढेर सारा माल लग चुका था, वह कुत्तों से नजरें बचाकर बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था ...।

Thursday, July 2, 2009

आम आदमी

न्यूज चैनल के दफ्तर से बाहर आते मेरे पत्रकार मित्र ने कहा, सॉरी यार तुम्हें इतना वेट कराया। बुलेटिन तो खत्म हो गया था पर इसी बीच मुद्रास्फीति की दर आ गई, उसी में उलझ गया। मैंने कहा, यार महंगाई तो चढ़ती ही जा रही है, न जाने कहां जाकर रुकेगी। दोस्त ने एक रिक्शेवाले को हाथ दिया और हम उसमें बैठकर कार पार्किंग की ओ र चल पड़े। दोस्त ने कहा, हर चीज के दाम बढ़ रहे हैं। मकान मालिक ने किराया बढ़ा दिया है, पेट्रोल -डीजल में आग लगी हुई है। कंपनी साली इंक्रीमेंट देने को तैयार नहीं। आम आदमी कैसे जिएगा दिल्ली में। तभी रिक्शेवाले ने कहा, लो आ गया साहब। मैंने पूछा कितने पैसे ? रिक्शेवाले ने कहा, 20 रुपए। दोस्त झल्लाया, भइया 10 रुपए लगते हैं । नया नहीं हूँ, तीन साल से आ रहा हूं। रिक्शेवाला अड़ा रहा, बोला, दो आदमी के 20 रुपए लगते हैं। दोस्त ने गुस्से और नफरत के साथ पर्स से दस और पांच के नोट निकाले और रिक्शेवाले को देते हुए बुदबुदाया, लूट लो भइया। आम आदमी का क्या है, वह तो हर तरफ से मारा जा रहा है।

Tuesday, June 30, 2009

मुक्तिदाता

इंटरनेट तकनीक नहीं , मुक्तिदाता है। इसने लेखनी को मुक्त कराया है- कागज, कलम, डाक टिकट, पता, अखबार, चैनल, संपादक, जुगाड़, भाव, टालमटोल, पसंद-नापसंद, अच्छे-बुरे, स्वीकृति-अस्वीकृति और इंतजार जैसे न जाने कितने बन्धनों से ।